दया धर्म का मूल है,पाप मूल अभिमान
जब मनुष्य ज्ञान मार्ग से भटक जाता है।
तब मनुष्य अपने आप को सामान्य स्तर का न समझ कर असाधारण, विशेष बड़ा, महत्त्वपूर्ण समझने लगता है!
तभी उसे अन्दर “अभिमान” का अंँकुर फूट निकलता है जो दिनों दिन बढ़ता हुआ विशाल रूप धारण कर लेता है।
झूठी प्रशंँसा, उद्दन्डता, स्वेच्छाचार, शेखीखोरी से भी मनुष्य अपनी वस्तुस्थिति को न समझकर अभिमान के परों से उड़ने लगता है।
ऐसे लोगों के दिमाग की बागडोर अभिमान और इसे पोषण करने वाले तत्त्वों के हाथों में होती है।
अविवेकी, अज्ञानी, अदूरदर्शी, मोटी बुद्धि के लोग ही “अभिमान” से ग्रस्त होते देखे जाते हैं।
कुछ भी हो अभिमान वह विष की बेल है, जो जीवन की हरियाली, सौंदर्य, बुद्धि, विस्तार-विकास को रोक कर उसे सुखा देती है।
यह ऐसी विष बुझी दुधारी तलवार है,
जो अपने तथा दूसरों के जीवन में विनाश का सूत्र पात कर देती है।
अभिमान का स्वभाव ही दमन, शोषण, पतन, क्रूरता आदि है,
जिससे स्वयं व्यक्ति और उससे सम्बन्धित समाज प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।
किसी भी विषय तथा क्षेत्र में अभिमान हो जाने पर मनुष्य की प्रगति, विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।
विद्या का अभिमान हो जाने पर विद्या नहीं बढ़ती वरन वह घटती ही जाती है।
प्रशंँसा, प्रसिद्धि जिससे अभिमान को पोषण मिलता है, विकास-उन्नति का पथ भुला देती है।
अभिमान हमेशा प्रशंसा की गोद में पलता है!
एक बार न्यूटन से किसी ने कहा था- “आपने तो पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया।”
इस पर उस निरभिमानी वैज्ञानिक ने कहा- “मेरे सामने ज्ञान का अथाह समुद्र फैला पड़ा है जिसके किनारे के कुछ ही रज-कण मैं उठा पाया हूँ।”
एक ओर ऐसे व्यक्तियों की स्थिति पर तरस आता है जो बेचारे कहीं से कुछ पढ़-सुनकर, थोड़ा-बहुत अध्ययन कर अभिमान वश अपने आपको विद्या का धनी, पन्डित, विद्वान मान बैठते हैं।
अपनी विद्वत्ता, पाँडित्य की दुहाई देने वालों की स्थिति एक खोखले, पोले ढोल की तरह ही होती है जो अपनी होशियारी, अध्ययन शीलता का अभिमान रखने वाले विद्यार्थी दूसरों से पिछड़ जाते हैं क्योंकि अभिमान ही है जो *कला, विद्या, शक्ति, सामर्थ्य सभी क्षेत्रों में सफलता और प्रगति का मार्ग बन्द कर देता है।
समय के सदगुरु के मार्गदर्शन में चलने से ही मनुष्य दया, प्रेम व अपने कर्तव्य को समझ सकता है। महाराज जी आत्मज्ञान देकर मनुष्य अन्दर मानवता के बीज बोते हैं जहाँ अभिमान और अहंकार का कोइ स्थान नहीं होता!
कहा है –
अहंकार करना नहीं, बहुत बड़ी यह भूल।
धन, वैभव के संग सब, मिल जाता है धूल।।
एक बात यही सत्य है, मानुष माटी खंड।
माटी में ही मिल गया, रहता नहीं घमंड।।
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